Thursday 27 December 2012

कविता-- मुसाफ़िर


हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,
शाखाएं फैला आराम दो,
मैं राही राह भटक चुका,
थककर चूर, मज़बूर हो गया,
मुझे अपनी आगोश में लो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,

सूरज अभी सर पर,
भरी दोपहरी मंज़िल दूर,
अपनी छांव का मुझे अहसास दो,
अपनी शाखांए फैला मुझे विश्राम दो,
सामने खड़े तालाब से मैं गला तर कर लूं,
बाद उसके पल दो पल का साथ दो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,

मैं चलूंगा अभी बहुत दूर मुझे जाना है,
अभी तो शाम और रात बाकी है,
ना थकूं मैं ना रुकूं मैं फिर चलूं लगातार,
तुम मुझ पर ऐसा अहसान दो,
देता है मुसाफ़िरों को आराम,
मुझे भी विश्राम दो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो।


प्रदीप राघव...

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