Sunday 23 June 2013

लिखने थे कुछ अक्स उसके,,,
पर क्या करूं ये कलम ही तो है, जो हाथ से फिसल जाती है...
उतारना चाहा उसकी तस्वीर को जिस पत्थर पर...वो पत्थर ही बिखर जाता है..
अब तुझसे और क्या कहूं,,,कहने की कोशिश करूं तो आवाज़ रूठ जाती है....प्रदीप राघव..

Friday 14 June 2013

आरटीआई से क्यों भागते हैं राजनैतिक दल...?



आरटीआई से क्यों भागते हैं राजनैतिक दल...?

केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले के बाद जिसमें कहा गया था कि राजनैतिक दलों को आरटाआई के दायरे में आना चाहिए।चूंकि वो सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं,के बाद राजनैतिक दलों ने खुलकर इसका विरोध किया।आरटीआई का श्रेय लेने वाली और इसे लागू करने वाली सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी ने सबसे पहले इसके दायरे में आने से इनकार किया।वहीं दूसरे दल भी इसे गलत ठहरा रहे हैं।उनका कहना है कि हम चुनावों के समय चुनाव आयोग को ब्यौरा दे देते हैं तो फिर इसकी क्या जरूरत है।जेडीयू के मुखिया ने तो यहां तक कहा था कि हम राशन की दुकान नहीं जो खर्चे का ब्यौरा देते रहें।वैसे भाजपा ने प्रत्यक्ष तौर पर इसका विरोध नहीं किया।लेकिन डरते सारे दल हैं।राजनैतिक दलों का मानना है कि वो चुनावों के समय सारे खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को मुहैया करा देते हैं।लेकिन सवाल यहां ये खड़ा होता है कि देश-विदेश से मिलने वाले चंदे के बारे में आम आदमी को जानकारी क्यों ना हो।जब वो वोट डालने का अधिकार रखते हैं तो उन्हें इसका भी अधिकार होना चाहिए कि जिस राजनीतिक दल को वो वोट देने जा रहे हैं उसके बारे में उन्हें जानने का हक हो।वैसे भी राजनैतिक दल सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं इसका मतलब ये है कि जनता को इस चंदे या खर्च की सारी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है।
इस अधिकार से जनता को वंचित रखकर इसका लाभ उठाया जा रहा है।जैसे कांग्रेस पार्टी का 24 अकबर रोड़ और भाजपा का 11 अशोक रोड़ वाले मुख्यालय का किराया क्रमश 42,817 और 66,896 रूपए है।ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी इसका लाभ उठा रहे हैं बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी, सपा,बसपा, और एनसीपी जैसे दल भी इस जमात में शामिल हैं।जो सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं।इसका खुलासा आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद अग्रवाल की शिकायत से हुआ जो उन्होंने 6 सितंबर 2011 को सूचना आयोग में दर्ज कराई थी।,जिसमें कांग्रेस और बीजेपी को दिल्ली में सरकारी ज़मीने रियायती दरों पर मुहैया कराने का ज़िक्र है।इसलिए ये दल जनता के प्रति जवाबदेह हैं।वहीं इस संबंध में दूसरी शिकायत 14 मार्च 2011 को अनिल बैरवाल ने सूचना आयोग के समक्ष दर्ज कराई थी जिसमें ये तर्क था कि कांग्रेस,एनसीपी और कम्युनिस्ट पार्टी पर जनता का पैसा खर्च होता है इसलिए ये दल आरटीआई की धारा 2(H) के तहत आते हैं।इन दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए मुख्य सूचना आयुक्त ने अपनी अध्यक्षता में 31 जुलाई 2012 को एक बेंच गठित करने का निर्देश दिया था।जिसमें सूचना आयुक्त अन्नपूर्णा दीक्षित और सूचना आयुक्त एम एल शर्मा शामिल थे।मुख्य सूचना आयुक्त सत्येंद्र मिश्र इसके अध्यक्ष थे।जिसके बाद दोनों याचिकाकर्ताओं के द्वारा जुटाई गई जानकारी के आधार पर सूचना आयोग ने फैसला लिया।जिसके तहत राजनीतिक दलों को छह हफ्तों के भीतर सूचना अधिकारी और अपीलीय प्राधिकरण नियुक्त करने का आदेश दिया गया है।इस फैसले के बाद राजनैतिक दलों के चंदे और खर्चे के बारे में आरटीआई  से सूचना प्राप्त की जा सकती है।भले ही इस कानून से भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम ना लग पाए लेकिन भ्रष्टाचारी राजनेताओं के मन में डर जरूर पैदा होगा जिसका लाभ सरकारी खजाने को तो होगा ही साथ ही राजनैतिक दलों की लीपापोती भी जनता के सामने आ जाएगी।


प्रदीप राघव...

Thursday 6 June 2013

कैसे लगेगी आतंक के लाल गलियारे पर लगाम..?



कैसे लगेगी आतंक के लाल गलियारे पर लगाम...


ज़मीन औऱ हक़ की लड़ाई लड़ने वाले नक्सलियों को आतंकवाद की संज्ञा दी जाने लगी है।दक्षिण में आंध्र प्रदेश से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक फैला लाल गलियारा इन्हीं की देन है।और लाल आतंक फैलाने  वाले ये नक्सली कहीं बाहर दूर-दराज से ना आकर उन्हीं गांवों के निवासी हैं जहां के जंगलों में इन्होंने कब्ज़ा जमाया है जिन्होंने एक आंदोलन शुरू तो किया लेकिन ख़त्म नहीं कर पाए।ना तो इन राज्यों की सरकारों के पास इनका इलाज है और ना ही केंद्र सरकार आज़तक इनका कोई ठोस हल निकाल पाई है।लेकिन इनके द्वारा हो रहे लाल आतंक पर राजनीति भलि-भांति कर लेती है।लेकिन आतंक के लाल गलियारे पर आज़तक कोई ठोस रणनीति नहीं बना पाई है।कुछ राजनेताओं ने पिछले दिनों माना कि सेना ही इनका इलाज हो सकता है।लेकिन सच्चाई इससे परे है।क्योंकि कुछ राज्यों में इनके पास सेना से अच्छे हथियार हैं।जबकि आज़ भी राज्यों की पुलिस ज़ंग लिए हथियार लेकर घूमती है।केंद्रीय गृह सचिव ने पिछले दिनों कहा कि बरसात में इनको घेरेंगे।लेकिन 100-200 या 1000-2000 लोगों को तो सेना ढेर कर सकती है।लेकिन पूरे के पूरे गांवों से सेना कैसे लोहा ले सकती है।ये हालात के मारे ग्रामीण ही तो हैं जिनकी तुलना आज़ आतंकियों से की जा रही है।इनकी ज़मीनों के लिए लड़ाई लड़ने का काम सीमीएम नेता चारू मज़ूमदार और कानू सन्याल ने किया था।पश्चिम बंगाल के नक्सबाड़ी में फैली ये चिंगारी आज आग बनकर बरस रही है।सन् 2004 में पुलिस के आला अधिकारियों के बीच हुई मीटिंग में ही ये बात सामने आई थी कि ये समस्या और भी गंभीर होती जाएगी।नतीजा हमारे सामने है।सबसे पहले ये लोग पुलिस अधिकारियों और सीआरपीएफ जवानों पर अपना गुस्सा फोड़ते थे लेकिन आज हालात बदलते जा रहे हैं।अब नक्सली और ज़्यादा हिंसक होते जा रहे हैं।25 मई को छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों के काफिले पर हमले के बाद देश में फिर से बहस छिड़ गई है कि इस समस्या को जड़ से कैसे ख़त्म किया जाए।एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र को भेजे पत्र में हमलावर नक्सली संगठन ने कांग्रेसी काफिले पर हमले की जिम्मेदारी ली थी और साथ ही ये भी कहा था कि वो सलवा जुड़ूम शुरू करने वाले कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को मारना चाहते थे,ड्राईवर और खलासियों को नहीं।इसका साफ-साफ मतलब ये निकलता है कि वो सरकारी नीतियों को पसंद नहीं करते ।सलवा जुड़ूम कार्यकर्ताओं ने जब उनके ख़िलाफ हथियार उठाए तो उन्हें ये हबात अखरने लगी।इसी वज़ह से कर्मा को मौत की नींद सुला दिया गया।लेकिन सवाल ये है कि इस समस्या से कैसे निबटा जाए।सरकार की कमज़ोर नीतियों की वज़ह से लाल गलियारा हिंदुस्तान के और राज्यों की तरफ भी पैर पसार रहा है।इसलिए गंभीर होती जा रही इस नक्सलवाद की समस्या से निबटने के लिए सरकार को पहले इनकी मांगों को सुनना चाहिए,और इनके इतिहास को जानना चाहिए।इनकी मांगों पर अमल करना चाहिए,जिस ज़मीन के लिए ये लड़ाई लड़ रहे हैं वो ज़मीन इनको सौंपनी होगी,उसके बाद ही कोई ठोस हल निकल पाएगा।अगर सरकार ये करने में नाकाम रही तो लाल आतंक का ये मंज़र दिन-ब-दिन और भी ख़ौफनाक होता जाएगा।

प्रदीप राघव..