Tuesday 14 January 2014

कविता- नौकरी की तलाश में जाता हूं जब शहर....

नौकरी की तलाश में जाता हूं जब शहर, मैं कभी-कभार...
कुछ रोटियां और प्याज की गांठ साथ ले जाता हूं,
उस वक्त पुराना झोला(जो पिताजी का था), मेरे कंधे पर होता है,
कुछ काग़ज, कलम और दस्तावेज़ साथ लिए जाता हूं....
अम्मा ने पॉलिश किए थे जो जूते, उन्हें पहन घर से निकल लेता हूं,
ताकते हैं आस-पड़ोस वाले, बगले झांकते हैं...
ये खुशी है, ईर्ष्या या कुछ और, ये मैं आज तक नहीं समझ पाया...

घर से निकलने से पहले...अम्मा छोटी सी प्याली में दही-बूरा ले आती है....
एक चम्मच चखने के बाद मैं पूरी प्याली चट कर जाता हूं,
माथे पर तिलक लगाना उचित नहीं समझता, पर...
गुजरता हूं जब चौक से तो कुएं वाले मंदिर पर दूर से ही सिर झुका लेता हूं.
ये सिलसिला हर बार यूंही चलता रहता है, और हर शाम को जब घर लौटता हूं,
तो मेरे घर में ही कुछ निगाहें मेरी ओर ताकती रहती हैं...दरअसल वो टकटकी लगाए रखती हैं...
कि कब मैं आऊं और उन्हें रोजगार मिलने की ख़बर सुनाऊं,पर ऐसा कभी नहीं होता...
पर, पहुंचता हूं घर तो उन्हें ढांढस बंधा देता हूं....
अगली बार किसी दूसरे शहर को मैं फिर नौकरी की तलाश में चल देता हूं....


प्रदीप राघव...