Tuesday 31 December 2013

बीते साल बहुत से बदलाव हुए..समाज में, राजनीति में, हर जगह..जिनमें से कुछ बहुत अच्छे थे, तो कुछेक बुरे...लेकिन हर अच्छाई की जंग बुराई को खत्म करके ही जीती जाती है...कुछ इसी तरह हम भी चल रहे हैं...समाज भी चल रहा है...एक गतिमान नदी की तरह...नदी के बहाव की तरह आगे बढ़िए, मंजिल कठिनाईयों को पार करने के बाद ही मिलती है...दृढ इच्छाशक्ति रखिए...विश्वास रखिए...धैर्य के साथ काम लीजिए...तम्मनाएं तो रोजाना पैदा होती हैं...और आप उनको पाने के लिए मेहनत भी करते हैं...लेकिन इस साल औरों के लिए भी कुछ करिए...आज की रात के बाद 2013 नहीं आने वाला...लेकिन उम्मीदें कायम रखिए...हौसला रखिए...धैर्य रखिए जीत आपकी ही होगी...इन्ही शब्दों के साथ आप सभी को नव वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं...ये साल आपके जीवन में नई खुशियां लेकर आए...ईश्वर से यही मनोकामना करता हूं...HAPPY NEW YEAR 2014





प्रदीप राघव

Friday 1 November 2013

अलविदा बीबी नातियों वाली,अलविदा मियां,मौलाना लादेन,अलविदा केपी सक्सेना...आपको श्रद्धांजलि...

अपनी लेखनी में मियां और मौलाना लादेन का ज़िक्र करने वाले व्यंग्यकार केपी सक्सेना आज भले ही इस दुनिया को अलविदा कह गए...लेकिन वो हमेशा हमारे दिलों में एक ज़िंदादिल शख़्स की तरह ज़िदा रहेंगे...बहुत से लोगों की केपी से बहुत सी यादें जुड़ी हैं...ऐसी ही एक याद का ज़िक्र एस लेख में करूंगा...उर्मिल कुमार थपलियाल के द्वारा....

उर्मिल कुमार थपलियाल कहते हैं...ये उन दिनों की बात है जब केपी सक्सेना रेलवे में स्टेशन मास्टर हुआ करते थे...एक दिन केपी,उर्मिल बाबू और कुमुद नागर चारबार स्टेशन से बाहर पान की दुकान पर पहुंचे(केपी पान के ख़ूब शौकीन थे)...तीनों ने पान खाया...उर्मिल बाबू ने तफ़रीह लेने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला और कहने लगे''अरे यार आज तो जेब में पैसे नहीं हैं'' केपी ने उन्हें घूरकर देखा और बड़ी मुश्किल से 5 रुपए निकाले...उसके बाद केपी इस क़िस्से को बार-बार दोहराया करते कि उर्मिल ने उन्हें बेवकूफ बना दिया...उर्मिल कहते हैं केपी थे बहुत दिलदार...जो भी उनके पास जाता बिना मुस्कुराए वापस नहीं आता...केपी की लिखावट बिल्कुल जुदा थी...वे बड़ी ख़ूबसूरती से चीज़ों को पेश करते थे...उनके जाने के बाद कौन अब उनकी तरह लिख पाएगा...


प्रदीप राघव

Wednesday 23 October 2013

खज़ाना या अंधविश्वास...

खज़ाना या अंधविश्वास...

इधर यूपी के उन्नाव में खुदाई चल रही है उधर पिताजी की एक बात याद आ रही है, पिताजी अक्सर कहा करते थे ज़मीन के नीचे खज़ाना होता है,उनका कहना था जब वो छोटे थे,लगभग हमारी उम्र के..उस ज़माने में ज़मीन से पुराने सिक्के निकल आया करते थे,पुराने बर्तन,खज़ाना या कोई धातु। पिताजी की बातें काफी रोचक हुआ करती थीं,हमें सुनने में मज़ा आता था,पड़ोस के बच्चे भी उनके क़िस्से सुनने को जमा हो जाया करते थे।लेकिन ये अरसे पहले की बात थी,आज हालात बदल गए हैं। अब तक़रीबन 80 बरस बाद,पिताजी की उम्र के मुताबिक,ज़मीन से कुछ निकलता नहीं बल्कि निकलवाने की कोशिश ज़रूर की जाती है।जैसा कि उन्नाव के डौंडियाखेड़ा में हो रहा है।संत शोभन सरकार का सपना लोगों की उम्मीद बन गया है।गांव में क़िले के आसपास इन दिनों मेला जुटा है।जलेबी,समोसे,ब्रेड पकोड़ा इत्यादि-इत्यादि।अखिलेश के प्रदेश में खजाने की खुदाई चल रही है,अखिलेश सरकार खजाना निकलने से पहले ही उस पर अपना दावा ठोंक चुकी है।भले ही वहां फूटी कौड़ी ही ना निकले। डौंडियाखेड़ा गांव शायद उस दौरान भी इतना चर्चित ना हुआ होगा जब यहां राजा राव रामबख्श सिंह की सल्तनत थी।लेकिन आज डौंडियाखेड़ा गूगल पर जगह बना चुका है।ठीक अक्षय कुमार की फिल्म जोकर के गांव पगलापुर की तरह।लोग डौंडियाखेड़ा की तुलना पीपली लाइव से भी कर रहे हैं लेकिन जोकर फिल्म से भी इसकी तुलना की जाए तो बुरी बात नहीं,क्योंकि अगर खज़ाना मिला तो ये गांव भी नक्शे में अपनी अलग पहचान बना ही लेगा।लेकिन ये हकीक़त हो ये कोई जरूरी नहीं और ना ग़लत नहीं होगा। गांव में खज़ाने की ख़बर जंगल की आग की तरह फैली है,आसपास के गांवों के लोग भी डौंडियाखेड़ा में बसेरा डाले बैठे हैं।खज़ाने पर अपना दावा करने वालों की भी कोई कमी नहीं।लेकिन खुदाई में अभी तक कुछ मिला ही नहीं,हां कुछ 1500 साल पुरानी ईंटें ज़रूर मिली हैं।पिताजी की कुछ और बातें ज़ेहन में आ रही हैं,वो कहते थे कि अमीरी बढ़ने से ग़रीबी बढ़ी है,उन दिनों ये बात समझ से परे थी पर आज समझ आती है।उनका कहना था कि उस ज़माने में लोगों के पास पैसा ना था पर दो ज़ून की रोटी चैन से मिल जाती थी,लोगों के पास सोना ना था,लोग चैन से सोते थे,और आज हालात इसके उलट हैं,लोगों के पास पैसा है पर चैन नहीं सोना है पर नींद नहीं।आजकल पैसे और खजाने ने लोगों की नींद उड़ा दी है,डौंडियाखेड़ा की तरह।पिताजी कहते थे बरसात ज्यादा होने पर मिट्टी के भीतर से सिक्के बाहर आ जाया करते थे,खेतों में गड़े हुए घड़े मिल जाते थे,खज़ानों से भरे। लेकिन आज इसकी कल्पना करना बेमानी है। किसी बेवकूफी से कम नहीं,इसे अंधविश्वास ना कहें तो और क्या कहें।क्या हम सपनों पर जीते हैं।क्या कल्पनाओं को हकीक़त में गढ़ा जा सकता है।मेरे ख्याल से नहीं। लेकिन 21वीं सदी में हम यूएन में बैठने वाले देश के लोग ऐसी कल्पनाओं के पीछे कैसे भाग सकते हैं।क्या आसाराम जैसे ठगियाओं से अंधविश्वास का सबक हमें नहीं मिल पाया है जो देश को अंधेरे में रखकर पाखंड और झूठ के सहारे लोगों के भगवान बन बैठते हैं।अब ऐसे संत शोभन से इस समाज को सबक ले लेना चाहिए।कि वो ऐसे सपने देश को ना दिखाए जो कभी पूरे ही ना हों बल्कि खुद सपनों को साकार करके देश को बेहतर बनाएं,इसी में सबकी भलाई है।


प्रदीप राघव

Tuesday 3 September 2013

कविता- मेरे मकां में अब...


मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
सिवाय वीरानी के...
हैं चंद जाले और खिड़कियां भी हैं,
पर झांकने वाला कोई नहीं..
गूंजती थीं जो आवाज़ें कल तक वहां,
हां, वो अभी भी कानों में सुनाई पड़ती हैं...
धूल से सनी हुई तस्वीरें अब भी ज़मीं पर पड़ी हैं,
और कुछ दीवारों पर टंगी हैं...
टिक-टिक करने वाली घड़ी आज़ थम सी गई है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद...
कई दफ़ा दिल को समझाया मैंने,
पर ना ख़ुद रुक पाया ना मेरे आंसू...
अब मेरा मकां मुझे कहानी लगता है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद,
मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
जब मुझे मकां की याद आई...
ख़ूब आंसू बहे और मैं वापस मकां को लौटा,
जालों के बीच से मैंने झांका,
खिड़कियों से आती बूंदों को मैंने ताका...
फिर मैंने उन तस्वीरों की आवाज़ सुनी,
जिनमें से कुछ टूट गई थीं...
और तब मेरी समझ में आया जिससे मैं अभी तक बेख़बर था,
ख़ूब रोया...आंखें सुजाई मैंने...
बाद उसके जब मैं नए घर लौटा,
तो पुरानी यादें थीं मेरे साथ...
और लबों पे यही कविता थी...
मेरे मकां में अब यादें रहा करती हैं
मेरे बाद,मेरे परिवार के बाद...


प्रदीप राघव...

Tuesday 16 July 2013

जब मेट्रो गाड़ी आती है-कविता

जब मेट्रो गाड़ी आती है,
धड़कन दिल की बढ़ जाती है,
सफ़र हमारा रोज़ाना का मेट्रो गाड़ी से होता है,
पर एक बरस है हो चला ना कोई हमसे मिलता है...
ना कोई हमसे मिलता है ना कोई हमसे बतियाता,
मेट्रो की तन्हाई में हम खुद से अब बातें किया करते हैं,
चारों तरफ ख़ामोशी,पर कुछ लोग रेडियो सुना करते हैं,
एक सन्नाटा सा कौंध जाता है...
पर हमारे दिल को सुकून आ जाता है,
जब छात्रों का झुंड सवार हो जाता है,
छात्र आपस में बतियाते हैं,
सब उनके मुंह को ताक-ताक,अपने-अपने स्टेशन उतर जाते हैं।



Sunday 7 July 2013

यूं तो मेरी ख़ामोशी भी...

यूं तो मेरी ख़ामोशी भी बहुत कुछ कहती थी,
मगर दिल की दास्तां में ज़ुबां का साथ ज़रूरी था...प्रदीप राघव

Sunday 23 June 2013

लिखने थे कुछ अक्स उसके,,,
पर क्या करूं ये कलम ही तो है, जो हाथ से फिसल जाती है...
उतारना चाहा उसकी तस्वीर को जिस पत्थर पर...वो पत्थर ही बिखर जाता है..
अब तुझसे और क्या कहूं,,,कहने की कोशिश करूं तो आवाज़ रूठ जाती है....प्रदीप राघव..

Friday 14 June 2013

आरटीआई से क्यों भागते हैं राजनैतिक दल...?



आरटीआई से क्यों भागते हैं राजनैतिक दल...?

केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले के बाद जिसमें कहा गया था कि राजनैतिक दलों को आरटाआई के दायरे में आना चाहिए।चूंकि वो सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं,के बाद राजनैतिक दलों ने खुलकर इसका विरोध किया।आरटीआई का श्रेय लेने वाली और इसे लागू करने वाली सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी ने सबसे पहले इसके दायरे में आने से इनकार किया।वहीं दूसरे दल भी इसे गलत ठहरा रहे हैं।उनका कहना है कि हम चुनावों के समय चुनाव आयोग को ब्यौरा दे देते हैं तो फिर इसकी क्या जरूरत है।जेडीयू के मुखिया ने तो यहां तक कहा था कि हम राशन की दुकान नहीं जो खर्चे का ब्यौरा देते रहें।वैसे भाजपा ने प्रत्यक्ष तौर पर इसका विरोध नहीं किया।लेकिन डरते सारे दल हैं।राजनैतिक दलों का मानना है कि वो चुनावों के समय सारे खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को मुहैया करा देते हैं।लेकिन सवाल यहां ये खड़ा होता है कि देश-विदेश से मिलने वाले चंदे के बारे में आम आदमी को जानकारी क्यों ना हो।जब वो वोट डालने का अधिकार रखते हैं तो उन्हें इसका भी अधिकार होना चाहिए कि जिस राजनीतिक दल को वो वोट देने जा रहे हैं उसके बारे में उन्हें जानने का हक हो।वैसे भी राजनैतिक दल सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं इसका मतलब ये है कि जनता को इस चंदे या खर्च की सारी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है।
इस अधिकार से जनता को वंचित रखकर इसका लाभ उठाया जा रहा है।जैसे कांग्रेस पार्टी का 24 अकबर रोड़ और भाजपा का 11 अशोक रोड़ वाले मुख्यालय का किराया क्रमश 42,817 और 66,896 रूपए है।ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी इसका लाभ उठा रहे हैं बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी, सपा,बसपा, और एनसीपी जैसे दल भी इस जमात में शामिल हैं।जो सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं।इसका खुलासा आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद अग्रवाल की शिकायत से हुआ जो उन्होंने 6 सितंबर 2011 को सूचना आयोग में दर्ज कराई थी।,जिसमें कांग्रेस और बीजेपी को दिल्ली में सरकारी ज़मीने रियायती दरों पर मुहैया कराने का ज़िक्र है।इसलिए ये दल जनता के प्रति जवाबदेह हैं।वहीं इस संबंध में दूसरी शिकायत 14 मार्च 2011 को अनिल बैरवाल ने सूचना आयोग के समक्ष दर्ज कराई थी जिसमें ये तर्क था कि कांग्रेस,एनसीपी और कम्युनिस्ट पार्टी पर जनता का पैसा खर्च होता है इसलिए ये दल आरटीआई की धारा 2(H) के तहत आते हैं।इन दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए मुख्य सूचना आयुक्त ने अपनी अध्यक्षता में 31 जुलाई 2012 को एक बेंच गठित करने का निर्देश दिया था।जिसमें सूचना आयुक्त अन्नपूर्णा दीक्षित और सूचना आयुक्त एम एल शर्मा शामिल थे।मुख्य सूचना आयुक्त सत्येंद्र मिश्र इसके अध्यक्ष थे।जिसके बाद दोनों याचिकाकर्ताओं के द्वारा जुटाई गई जानकारी के आधार पर सूचना आयोग ने फैसला लिया।जिसके तहत राजनीतिक दलों को छह हफ्तों के भीतर सूचना अधिकारी और अपीलीय प्राधिकरण नियुक्त करने का आदेश दिया गया है।इस फैसले के बाद राजनैतिक दलों के चंदे और खर्चे के बारे में आरटीआई  से सूचना प्राप्त की जा सकती है।भले ही इस कानून से भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम ना लग पाए लेकिन भ्रष्टाचारी राजनेताओं के मन में डर जरूर पैदा होगा जिसका लाभ सरकारी खजाने को तो होगा ही साथ ही राजनैतिक दलों की लीपापोती भी जनता के सामने आ जाएगी।


प्रदीप राघव...

Thursday 6 June 2013

कैसे लगेगी आतंक के लाल गलियारे पर लगाम..?



कैसे लगेगी आतंक के लाल गलियारे पर लगाम...


ज़मीन औऱ हक़ की लड़ाई लड़ने वाले नक्सलियों को आतंकवाद की संज्ञा दी जाने लगी है।दक्षिण में आंध्र प्रदेश से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक फैला लाल गलियारा इन्हीं की देन है।और लाल आतंक फैलाने  वाले ये नक्सली कहीं बाहर दूर-दराज से ना आकर उन्हीं गांवों के निवासी हैं जहां के जंगलों में इन्होंने कब्ज़ा जमाया है जिन्होंने एक आंदोलन शुरू तो किया लेकिन ख़त्म नहीं कर पाए।ना तो इन राज्यों की सरकारों के पास इनका इलाज है और ना ही केंद्र सरकार आज़तक इनका कोई ठोस हल निकाल पाई है।लेकिन इनके द्वारा हो रहे लाल आतंक पर राजनीति भलि-भांति कर लेती है।लेकिन आतंक के लाल गलियारे पर आज़तक कोई ठोस रणनीति नहीं बना पाई है।कुछ राजनेताओं ने पिछले दिनों माना कि सेना ही इनका इलाज हो सकता है।लेकिन सच्चाई इससे परे है।क्योंकि कुछ राज्यों में इनके पास सेना से अच्छे हथियार हैं।जबकि आज़ भी राज्यों की पुलिस ज़ंग लिए हथियार लेकर घूमती है।केंद्रीय गृह सचिव ने पिछले दिनों कहा कि बरसात में इनको घेरेंगे।लेकिन 100-200 या 1000-2000 लोगों को तो सेना ढेर कर सकती है।लेकिन पूरे के पूरे गांवों से सेना कैसे लोहा ले सकती है।ये हालात के मारे ग्रामीण ही तो हैं जिनकी तुलना आज़ आतंकियों से की जा रही है।इनकी ज़मीनों के लिए लड़ाई लड़ने का काम सीमीएम नेता चारू मज़ूमदार और कानू सन्याल ने किया था।पश्चिम बंगाल के नक्सबाड़ी में फैली ये चिंगारी आज आग बनकर बरस रही है।सन् 2004 में पुलिस के आला अधिकारियों के बीच हुई मीटिंग में ही ये बात सामने आई थी कि ये समस्या और भी गंभीर होती जाएगी।नतीजा हमारे सामने है।सबसे पहले ये लोग पुलिस अधिकारियों और सीआरपीएफ जवानों पर अपना गुस्सा फोड़ते थे लेकिन आज हालात बदलते जा रहे हैं।अब नक्सली और ज़्यादा हिंसक होते जा रहे हैं।25 मई को छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों के काफिले पर हमले के बाद देश में फिर से बहस छिड़ गई है कि इस समस्या को जड़ से कैसे ख़त्म किया जाए।एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र को भेजे पत्र में हमलावर नक्सली संगठन ने कांग्रेसी काफिले पर हमले की जिम्मेदारी ली थी और साथ ही ये भी कहा था कि वो सलवा जुड़ूम शुरू करने वाले कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को मारना चाहते थे,ड्राईवर और खलासियों को नहीं।इसका साफ-साफ मतलब ये निकलता है कि वो सरकारी नीतियों को पसंद नहीं करते ।सलवा जुड़ूम कार्यकर्ताओं ने जब उनके ख़िलाफ हथियार उठाए तो उन्हें ये हबात अखरने लगी।इसी वज़ह से कर्मा को मौत की नींद सुला दिया गया।लेकिन सवाल ये है कि इस समस्या से कैसे निबटा जाए।सरकार की कमज़ोर नीतियों की वज़ह से लाल गलियारा हिंदुस्तान के और राज्यों की तरफ भी पैर पसार रहा है।इसलिए गंभीर होती जा रही इस नक्सलवाद की समस्या से निबटने के लिए सरकार को पहले इनकी मांगों को सुनना चाहिए,और इनके इतिहास को जानना चाहिए।इनकी मांगों पर अमल करना चाहिए,जिस ज़मीन के लिए ये लड़ाई लड़ रहे हैं वो ज़मीन इनको सौंपनी होगी,उसके बाद ही कोई ठोस हल निकल पाएगा।अगर सरकार ये करने में नाकाम रही तो लाल आतंक का ये मंज़र दिन-ब-दिन और भी ख़ौफनाक होता जाएगा।

प्रदीप राघव..

Wednesday 24 April 2013

करते थे कल तक जिस राह पे इंतज़ार उनका..
आज़ वो वहां से ख़ामोशी से गुज़र जाते हैं--प्रदीप राघव..

Sunday 21 April 2013

कट जाती थी राहों से गुजरते-गुजरते यूं ही..
मुहब्बत के सफ़र में काटनी पड़ती है ज़िंदगी....प्रदीप राघव

Sunday 3 March 2013

चकाचौंध से दूर एक शहर यहां भी..

शहर के मॉल्स और मल्टीप्लेक्स की चकाचौंध से दूर इस अंधेरे गलियारे में भी लोगों का आशियाना होता है।
ये वो लोग हैं जो दो ज़ून की रोटी के जुगाड़ में दर-ब-दर भटकते रहते हैं।इन संकरी गली-कूचों में बने टीन-टप्पर में ये लोग गुजर-बसेरा करने को मज़बूर हैं।बस्ती से बाहर बसे शहरों में रहने वाले राजनेता इन्हें यहां से हटाने की भरसक कोशिश में लगे रहते हैं मगर इन लोगों का जीना भी यहां और मरना भी यहां है।पेट की आग और ग़रीबी इन्हें उस राह पर घसीट ले जाती है जहां ज़िल्लत के सिवाय और कुछ नहीं।इनमें से एकाध कोई छोटा-मोटा कारोबार करने की जुगत में लगा है तो उनमें से ज़्यादातर जुर्म की राह पर चले जाते हैं।

ठीक ऐसा ही हाल इन ग़रीबो के बच्चों का भी है।
मासूम बच्चों को पढाने की बजाय छोटे-मोटे काम-धंधे में लगा देना इन लोगों की मज़बूरी है।कोई चाय-पानी की दुकान पर कप-प्लेट धोने का काम करता है तो कोई पास के नर्सिंग होम्स के बाहर सड़कों पर ग्राहकों को लुभाने के लिए खडा मिल जाता है।
इनमें से ज़्यादातर लड़कियां घर में कांच की चूड़ियां
बनाने का काम करती हैं।बचपन से ही ये मासूम ग़लत 

संगत में पड़ जाते हैं और जुर्म की दुनिया का रास्ता पकड लेते हैं।
हाथ में फ्ल्यूड और सिलोचन नामक पदार्थ लिए ये बालक इस बस्ती के पास वाले उजडे पार्क में झुंड में बैठे मिल जाते हैं जुर्म की दुनिया में कदम रखने की इस पहली सीढी को पार कर ये बच्चे जल्द ही पूर्ण रूप से अपराध की दुनिया के बेताज बादशाह बन जाते हैं।कुछ महत्वपूर्ण आंकडे भी इस बात की पुष्टि करते हैं।पढाई में इस्तेमाल होने वाला फ्ल्यूड इनकी ज़िंदगी में ऐसा ज़हर घोलता है कि ये नशे की लत में पूरा जीवन बिता डालते हैं।और जल्द ही शराब,चरस,गांजा और अफ़ीम का सेवन करने लगते हैं।मलिन बस्तियों में रहने वाले मासूमों के अलावा शहरी वर्ग के भी कुछ बच्चे इस तरह के पदार्थों का नशे के लिए गुपचुप तरीक़े से सेवन करते हैं।शहरी वातावरण इनके कृत्यों पर पर्दा डाल देता है जबकि सामाजिक बहिष्कार का सामना
तो मलिन बस्तियों में रहने वाले मासूमों को करना पडता है।रात तके अंधियारे में ये बालक किसी मुख्य सड़क के किनारे जुर्म की फ़िराक में घूमते दिखाई पड़ते हैं।उम्र का लिहाज इनके कुकर्मों पर पर्दा डाल देता है।पिछले दिनों दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना ने इस मुद्दे को खूब रंग दे दिया।और जुवेनाइल एक्ट में बदलाव की मांग ज़ोर-शोर से उठने लगी।क्योंकि उस भयानक रात लड़की के साथ सबसे ज्यादा दरिंदगी दिखाने वाला भी नाबालिग ही था।

दिल्ली के विवेक विहार और सीमापुरी की झुग्गियों में रहने वाले ग़रीब लोग इस बात को मानते भी हैं लेकिन इसमें भी दोष सरकार का ही है।इनमें से कुछ नई उम्र के लड़के काम की तलाश में इस दोज़ख़ से दुर कभी-कभी रईसों की दुनिया की सैर भी कर आते हैं।इन लोगों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता लेकिन कुछ पाने की जुगत में पूरा जीवन दांव पर लगा देते हैं।सीमापुरी की झुग्गियो में रहने वाले ज्यादातर बच्चे कबाड़ बीनने का काम करते हैं।सवाल पूछने पर पता चलता है कि ये लोग सालों पहले बांग्लादेश से यहां परिवार समेत आ बसे और अब छोटे-मोटे कारोबार में लगकर दिल्ली में ही रहने लगे।इन इलाकों से गुजरने वाली बसों में ये बालक बटुआ मार पिटाई खाते दिखाई दे जाते हैं।अपराध की दुनिया में ये कहां तक कब और कैसे पहुंच गए इस बात का अंदाज़ा इन्हें खुद भी नहीं है।चूहों जैसी चमकीली आंखें और पसलियों पर चिपकी पतली चमड़ी खुद ही इनकी हालत बयां कर देते हैं।

सीमापुरी बॉर्डर से लगी यूपी की कुछ छुटमुट कॉलोनियों में ये बालक अक्सर चुंबकनुमा डंडे से नालियां खखोरते मिल जाते हैं।15-20 रूपयों के सिक्कों से ये अपने खाने-पीने और नशे-पानी का प्रबंध भी कर लेते हैं।शाम के वक़्त शराबी बाप से मां को बचाने के लिए लड़ते-झगड़ते भी दिखते हैं।जिन हाथों में कलम होनी चाहिए उन हाथों में शराब का गिलास लिए नज़दीक के सरकारी ठेके पर जाम छलकाते हुए रात के वक़्त इन्हें देखा जा सकता है।जाति-मज़हब से इनका कोई लेना-देना नहीं पर शराब के लिए अक्सर ये आपस में लड़ जाते हैं।पास की रेलवे लाइन से भी सरकारी संपत्ति चुराते ये पकड़े जाते हैं।बाहरी समाज से इनका कुछ लेना-देना नहीं लेकिन एकाध बालक ऐसा भी है जो सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए मलिन बस्ती से बाहर
अच्छे इलाके में भी जाता है लेकिन पैसों की कमी और लाचारी इन्हें ज़्यादा दिन तक वहां टिकने नहीं देती।कुछ कुची हुई मानसिकता वाले लोगों के द्वारा भी इनका बहिष्कार किया जाता है इन्हीं कारणों से ये ज़िल्लत की ज़िंदगी में जल्द ही वापिस लौट आते हैं और उसी राह को पकड़ लेते हैं जो इनके दोस्तों ने अपना रखी है

दो जू़न की रोटी और रात की शराब का जुगाड़ इन्हें अपराध की राह पर ले जा रहा है।बचपन की मौज-मस्ती से
मख़्मूर ये बच्चे अंधकार में जीने को मज़बूर हैं।और शहर की चकाचौंध से अच्छी इन्हें बस्ती की दोज़ख़ की ज़िंदगी लगने लगी है।इन्हे यहां से बाहर निकालने की कोशिश करने वाले राजनेताओं को ना केवल इन्हें यहां से हटाना चाहिए साथ ही साथ छोटे-मोटे मकान या ज़मीन और रोज़गार का अवसर भी देना चाहिए।इस ज्वलंत मुद्दे पर सरकार को आम आदमी के साथ मिलकर इन मासूमों की मदद करनी होगी।तभी इस समाज को इन कमउम्र अपराधियों से छुटकारा मिलेगा और साथ ही साथ इनके भविष्य को कुछ रोशनी की लौ भी दिखाई देगी।

प्रदीप राघव...

Wednesday 16 January 2013

सूद समेत होगा पाक का हिसाब..

26 नवंबर 2003 को भारत-पाक के बीच हुए सीजफायर समझौते का सीमा पार से बार-बार उल्लंघन किया जाता रहा है।पाकिस्तानी फौज बार-बार धोखेबाजी कर हिंदुस्तान की पीठ में छुरा भोंकती है और ऐसा प्रतीत होता है कि बेईमानी और धोखेबाजी पाक के डीएनए में ही शामिल है। जम्मू-कश्मीर के पुंछ में हुई घटना कोई पहली बार नहीं हुई, इससे पहले भी पाकिस्तान ने कई बार इस तरह के बर्बर कृत्यों को अंजाम दिया है।
पाकिस्तान सीजफायर का उल्लंघन बार-बार करता रहा है मानो उसे हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी फौज का कोई खौफ ही ना हो। लांसनायक हेमराज और सुधाकर जैसे कई भारतीय जवानों के साथ पाक ने इस तरह की बर्बरता पहले भी की है चाहे वो कारगिल में शहीद सौरभ कालिया हो या फिर अन्य कोई भारतीय सपूत। हिंदुस्तान बार-बार पाक को चेतावनी देकर इन मामलों को तूल नहीं देना चाहता और अपनी ओर से दोस्ती का हाथ बढ़ाता आया है। इसी बात का फायदा उठा भारतीय सीमा में 600 मीटर अंदर घुसकर पाकिस्तानी फौज ने इस नृशंस घटना को अंजाम दिया। हिंदुस्तान बड़े सहज तरीके से पाक की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता है लेकिन पाक हर बार इस हाथ को काटने की कोशिश करता है और नतीजा सिफर है। समझौता एक्सप्रेस,भारत-पाक क्रिकेट और वीजा नियमों में ढील इसी कोशिश का एक हिस्सा हैं जो बार-बार असफल साबित होते हैं।अमन-चैन की बात करने वाले पाकिस्तानी हुक्मरान ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर बड़े कड़क लहजे में उल्टा आरोप भारत पर ही मढ़ देते हैं। हिंदुस्तान की ओर से अथक प्रयास करने के बावजूद संबंधों में खटास ज्यों की त्यों बनी हुई है।जबकि भारत आगमन पर भी पाकिस्तानी हुक्मरानो की जमकर मेजबानी की जाती है फिर चाहे वो राष्ट्रपति का बेटा हो या खुद राष्ट्रपति। पिछले दिनों भारत दौरे पर आए पाक गृहमंत्री रहमान मलिक की खूब खातिरदारी की गई।


हालांकि भारत की ओर से की गई मेजबानी की जमकर तारीफ भी होती है लेकिन जैसे ही संबंध सुधरने लगते हैं वैसे ही पाकिस्तान कुछ ना कुछ ऊटपटांग हरकत कर बैठता है। ये हालात 1947 से ही बने हुए हैं कभी पाक अधिकृत कश्मीर मसला तो कभी बार-बार किया जा रहा युद्धविराम का उल्लंघन। ये मुद्दे हमेशा से इन दोनों देशों की दोस्ती में सेंध लगाए बैठे है। वैसे हिंदुस्तान की ताकत का अंदाजा कारगिल युद्ध में 90,000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों के हथियार डालने वाली घटना से ही लग जाता है। हालांकि सीमापार से हमेशा थोड़ी बहुत गोलीबारी पाकिस्तान की ओर से होती ही रहती है। लेकिन इस बार हुई इस नृशंस घटना का जवाब सूद समेत लौटाना होगा। पीठ पीछे धोखाधड़ी और मक्कारी के साथ-साथ पाकिस्तानी हुक्मरान भी हिंदुस्तानी ज़मीन पर अपने विवादों से बखेड़ा खड़ा कर जाते हैं। पिछले दिनों भारत दौरे पर आए गृहमंत्री रहमान मलिक भी जाते-जाते भारत की साख पर बट्टा लगाने की नाकाम कोशिश कर
गए। उनके मुताबिक कारगिल में शहीद सौरभ कालिया का शव क्षत-विक्षत उनकी गोलियों से नहीं बल्कि खराब मौसम के कारण हुआ और साथ ही साथ हाफिज सईद और बाबरी मस्जिद को लेकर भी विवादित बयान दे खुशी-खुशी वापस लौट गए। लेकिन भारत की तरफ से कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई।

इंडिया टुडे नामक पत्रिका में छपे एक लेख में भारत की कुछ कमिया उजागर होती हैं जिसमें पाकिस्तान की अणु शक्ति ब्रिटेन के बराबर बताई गई हैं। जबकि हिंदुस्तान के कुछ सेना प्रमुखों ने भी माना कि भारत के पास हथियार और गोला बारूद की कमी है। वर्तमान सेना प्रमुख भी मानते हैं कि सेना के पास गोला बारूद की कमी है और हिंदुस्तान का रक्षा बजट भी कम ही है। क्या पाकिस्तान इन्हीं बातों का फायदा तो नहीं उठा रहा। क्यूं ना पहले भारत को इतना मजबूत बनाया जाए कि कोई भी देश इसकी तरफ आंखें उठाने की हिम्मत ना करे। हिंदुस्तान में बनने वाली कुछ फिल्में भी दोनों देशों के रिश्तों को साधने की कोशिश करती हैं इसके उलट पाकिस्तान हमेशा हिंदुस्तान को नीचा दिखाने की कोशिश करता नजर आया है ।बार-बार सीजफायर का उल्लंघन,भारतीय ट्रकों को सीमा पर रोक देना, 'पैगाम ए अमन' नामक बस पर रोक लगा देना
और अब भारतीय जवानों की निर्मम हत्या के बाद क्रूरता से उनके सिर काट देना। इस तरह की घटना यही दर्शाती हैं कि पाक अब आर या पार के मूड में है और वो नहीं चाहता कि हिंदुस्तान में अमन-ओ-चैन कायम हो। इसलिए हिंदुस्तान को पहले और मजबूत बनकर जल्द ही पाक की इस ना'पाक' हसरत को पूरा करना होगा।


प्रदीप राघव