Tuesday 3 September 2013

कविता- मेरे मकां में अब...


मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
सिवाय वीरानी के...
हैं चंद जाले और खिड़कियां भी हैं,
पर झांकने वाला कोई नहीं..
गूंजती थीं जो आवाज़ें कल तक वहां,
हां, वो अभी भी कानों में सुनाई पड़ती हैं...
धूल से सनी हुई तस्वीरें अब भी ज़मीं पर पड़ी हैं,
और कुछ दीवारों पर टंगी हैं...
टिक-टिक करने वाली घड़ी आज़ थम सी गई है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद...
कई दफ़ा दिल को समझाया मैंने,
पर ना ख़ुद रुक पाया ना मेरे आंसू...
अब मेरा मकां मुझे कहानी लगता है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद,
मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
जब मुझे मकां की याद आई...
ख़ूब आंसू बहे और मैं वापस मकां को लौटा,
जालों के बीच से मैंने झांका,
खिड़कियों से आती बूंदों को मैंने ताका...
फिर मैंने उन तस्वीरों की आवाज़ सुनी,
जिनमें से कुछ टूट गई थीं...
और तब मेरी समझ में आया जिससे मैं अभी तक बेख़बर था,
ख़ूब रोया...आंखें सुजाई मैंने...
बाद उसके जब मैं नए घर लौटा,
तो पुरानी यादें थीं मेरे साथ...
और लबों पे यही कविता थी...
मेरे मकां में अब यादें रहा करती हैं
मेरे बाद,मेरे परिवार के बाद...


प्रदीप राघव...