Sunday 3 March 2013

चकाचौंध से दूर एक शहर यहां भी..

शहर के मॉल्स और मल्टीप्लेक्स की चकाचौंध से दूर इस अंधेरे गलियारे में भी लोगों का आशियाना होता है।
ये वो लोग हैं जो दो ज़ून की रोटी के जुगाड़ में दर-ब-दर भटकते रहते हैं।इन संकरी गली-कूचों में बने टीन-टप्पर में ये लोग गुजर-बसेरा करने को मज़बूर हैं।बस्ती से बाहर बसे शहरों में रहने वाले राजनेता इन्हें यहां से हटाने की भरसक कोशिश में लगे रहते हैं मगर इन लोगों का जीना भी यहां और मरना भी यहां है।पेट की आग और ग़रीबी इन्हें उस राह पर घसीट ले जाती है जहां ज़िल्लत के सिवाय और कुछ नहीं।इनमें से एकाध कोई छोटा-मोटा कारोबार करने की जुगत में लगा है तो उनमें से ज़्यादातर जुर्म की राह पर चले जाते हैं।

ठीक ऐसा ही हाल इन ग़रीबो के बच्चों का भी है।
मासूम बच्चों को पढाने की बजाय छोटे-मोटे काम-धंधे में लगा देना इन लोगों की मज़बूरी है।कोई चाय-पानी की दुकान पर कप-प्लेट धोने का काम करता है तो कोई पास के नर्सिंग होम्स के बाहर सड़कों पर ग्राहकों को लुभाने के लिए खडा मिल जाता है।
इनमें से ज़्यादातर लड़कियां घर में कांच की चूड़ियां
बनाने का काम करती हैं।बचपन से ही ये मासूम ग़लत 

संगत में पड़ जाते हैं और जुर्म की दुनिया का रास्ता पकड लेते हैं।
हाथ में फ्ल्यूड और सिलोचन नामक पदार्थ लिए ये बालक इस बस्ती के पास वाले उजडे पार्क में झुंड में बैठे मिल जाते हैं जुर्म की दुनिया में कदम रखने की इस पहली सीढी को पार कर ये बच्चे जल्द ही पूर्ण रूप से अपराध की दुनिया के बेताज बादशाह बन जाते हैं।कुछ महत्वपूर्ण आंकडे भी इस बात की पुष्टि करते हैं।पढाई में इस्तेमाल होने वाला फ्ल्यूड इनकी ज़िंदगी में ऐसा ज़हर घोलता है कि ये नशे की लत में पूरा जीवन बिता डालते हैं।और जल्द ही शराब,चरस,गांजा और अफ़ीम का सेवन करने लगते हैं।मलिन बस्तियों में रहने वाले मासूमों के अलावा शहरी वर्ग के भी कुछ बच्चे इस तरह के पदार्थों का नशे के लिए गुपचुप तरीक़े से सेवन करते हैं।शहरी वातावरण इनके कृत्यों पर पर्दा डाल देता है जबकि सामाजिक बहिष्कार का सामना
तो मलिन बस्तियों में रहने वाले मासूमों को करना पडता है।रात तके अंधियारे में ये बालक किसी मुख्य सड़क के किनारे जुर्म की फ़िराक में घूमते दिखाई पड़ते हैं।उम्र का लिहाज इनके कुकर्मों पर पर्दा डाल देता है।पिछले दिनों दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना ने इस मुद्दे को खूब रंग दे दिया।और जुवेनाइल एक्ट में बदलाव की मांग ज़ोर-शोर से उठने लगी।क्योंकि उस भयानक रात लड़की के साथ सबसे ज्यादा दरिंदगी दिखाने वाला भी नाबालिग ही था।

दिल्ली के विवेक विहार और सीमापुरी की झुग्गियों में रहने वाले ग़रीब लोग इस बात को मानते भी हैं लेकिन इसमें भी दोष सरकार का ही है।इनमें से कुछ नई उम्र के लड़के काम की तलाश में इस दोज़ख़ से दुर कभी-कभी रईसों की दुनिया की सैर भी कर आते हैं।इन लोगों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता लेकिन कुछ पाने की जुगत में पूरा जीवन दांव पर लगा देते हैं।सीमापुरी की झुग्गियो में रहने वाले ज्यादातर बच्चे कबाड़ बीनने का काम करते हैं।सवाल पूछने पर पता चलता है कि ये लोग सालों पहले बांग्लादेश से यहां परिवार समेत आ बसे और अब छोटे-मोटे कारोबार में लगकर दिल्ली में ही रहने लगे।इन इलाकों से गुजरने वाली बसों में ये बालक बटुआ मार पिटाई खाते दिखाई दे जाते हैं।अपराध की दुनिया में ये कहां तक कब और कैसे पहुंच गए इस बात का अंदाज़ा इन्हें खुद भी नहीं है।चूहों जैसी चमकीली आंखें और पसलियों पर चिपकी पतली चमड़ी खुद ही इनकी हालत बयां कर देते हैं।

सीमापुरी बॉर्डर से लगी यूपी की कुछ छुटमुट कॉलोनियों में ये बालक अक्सर चुंबकनुमा डंडे से नालियां खखोरते मिल जाते हैं।15-20 रूपयों के सिक्कों से ये अपने खाने-पीने और नशे-पानी का प्रबंध भी कर लेते हैं।शाम के वक़्त शराबी बाप से मां को बचाने के लिए लड़ते-झगड़ते भी दिखते हैं।जिन हाथों में कलम होनी चाहिए उन हाथों में शराब का गिलास लिए नज़दीक के सरकारी ठेके पर जाम छलकाते हुए रात के वक़्त इन्हें देखा जा सकता है।जाति-मज़हब से इनका कोई लेना-देना नहीं पर शराब के लिए अक्सर ये आपस में लड़ जाते हैं।पास की रेलवे लाइन से भी सरकारी संपत्ति चुराते ये पकड़े जाते हैं।बाहरी समाज से इनका कुछ लेना-देना नहीं लेकिन एकाध बालक ऐसा भी है जो सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए मलिन बस्ती से बाहर
अच्छे इलाके में भी जाता है लेकिन पैसों की कमी और लाचारी इन्हें ज़्यादा दिन तक वहां टिकने नहीं देती।कुछ कुची हुई मानसिकता वाले लोगों के द्वारा भी इनका बहिष्कार किया जाता है इन्हीं कारणों से ये ज़िल्लत की ज़िंदगी में जल्द ही वापिस लौट आते हैं और उसी राह को पकड़ लेते हैं जो इनके दोस्तों ने अपना रखी है

दो जू़न की रोटी और रात की शराब का जुगाड़ इन्हें अपराध की राह पर ले जा रहा है।बचपन की मौज-मस्ती से
मख़्मूर ये बच्चे अंधकार में जीने को मज़बूर हैं।और शहर की चकाचौंध से अच्छी इन्हें बस्ती की दोज़ख़ की ज़िंदगी लगने लगी है।इन्हे यहां से बाहर निकालने की कोशिश करने वाले राजनेताओं को ना केवल इन्हें यहां से हटाना चाहिए साथ ही साथ छोटे-मोटे मकान या ज़मीन और रोज़गार का अवसर भी देना चाहिए।इस ज्वलंत मुद्दे पर सरकार को आम आदमी के साथ मिलकर इन मासूमों की मदद करनी होगी।तभी इस समाज को इन कमउम्र अपराधियों से छुटकारा मिलेगा और साथ ही साथ इनके भविष्य को कुछ रोशनी की लौ भी दिखाई देगी।

प्रदीप राघव...