Thursday 27 December 2012

कविता-- मुसाफ़िर


हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,
शाखाएं फैला आराम दो,
मैं राही राह भटक चुका,
थककर चूर, मज़बूर हो गया,
मुझे अपनी आगोश में लो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,

सूरज अभी सर पर,
भरी दोपहरी मंज़िल दूर,
अपनी छांव का मुझे अहसास दो,
अपनी शाखांए फैला मुझे विश्राम दो,
सामने खड़े तालाब से मैं गला तर कर लूं,
बाद उसके पल दो पल का साथ दो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो,

मैं चलूंगा अभी बहुत दूर मुझे जाना है,
अभी तो शाम और रात बाकी है,
ना थकूं मैं ना रुकूं मैं फिर चलूं लगातार,
तुम मुझ पर ऐसा अहसान दो,
देता है मुसाफ़िरों को आराम,
मुझे भी विश्राम दो,
हे वृक्ष तुम मुझे छांव दो।


प्रदीप राघव...

Monday 17 December 2012

जय 'जनता परिवर्तन पार्टी'

                                          

आजकल पार्टियां बदलने-बनाने का दौर चल रहा है, कोई नई पार्टी बनाने की कवायद में जुटा है
तो कोई अपना दल बदलने में। हमारे मन में भी एक दिन विचार आया क्यों ना जेपीपी बना डालें,
जो जनता से, जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता की हो अर्थात् 'जनता परिवर्तन पार्टी'।
दरअसल राजनीति के दांव-पेंच में हर कोई खुद को साबित करने में लगा है जिसके लिए खुद को
नई-नई पार्टियों से जोड़ने के साथ-साथ निजी दल बनाने में लगा है और जिंदगी की भागमभाग
में हर कोई कुछ ना कुछ नया करने में लगा है तो फिर हम क्यूं पीछे रहें भला। शुरूआत एक नई
पार्टी बनाने से क्यों ना की जाए। वैसे भी गुजरात से कर्नाटक तक हर जगह पार्टी बदलने और
बनाने का मौसम चल रहा है। और चुनावी मौसम में इस तरह के फैसले हों तो फिर क्या कहने।

पिछले ही दिनों गुजरात के प्रभावशाली नेता
केशुभाई पटेल ने भी बीजेपी का दामन छोड़ अब
जीपीपी यानि 'गुजरात परिवर्तन पार्टी' बना ली।
गुजरात विधानसभा चुनावों में इसे बहुत बड़ा
परिवर्तन माना जा रहा है। वैसे भी पटेल फैक्टर
गुजरात में काफी मायने रखता है। खैर, ये तो
नतीजों के बाद ही पता चलेगा कि गुजरात की
जनता मोदी का साथ देगी या फिर इस बार पटेल
फैक्टर ज्यादा कारगर साबित होगा। वहीं अगर बात कांग्रेस की करें तो उपमुख्यमंत्री रह चुके
नरहरि अमीन ने भी मुश्किल हालातों में पार्टी का साथ छोड़ दिया है।वैसे भी गुजरात में इस बार
जीपीपी, बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर है।

बहरहाल,कर्नाटक में भी राजनीतिक नाटक ज़ोर-शोर से चल रहा है। लंबे वक़्त से
'भारतीय जनता पार्टी' के साथ चल रहे विवाद के बाद अब येदियुरप्पा ने भी नई पार्टी बना ही डाली।
किसी भी दक्षिण भारतीय राज्य में पहली बार बीजेपी की सरकार बनाने का श्रेय येदियुरप्पा को ही
जाता है लेकिन खदान घोटालों में नाम आने के बाद पार्टी से बढ़ी तल्ख़ी की वज़ह से येदियुरप्पा को
मज़बूरन नई पार्टी बनानी पड़ी।'कर्नाटक जनता पार्टी' के मुखिया बी.एस. येदियुरप्पा आगामी
विधानसभा चुनावों में इस बार बीजेपी को करारा झटका देने के मूड़ में हैं।

राजनीतिज्ञ तो राजनीतिज्ञ आजकल आम आदमी भी पार्टी बनाने की इस दौड़ में शामिल हो गया
है। भ्रष्टाचार और जन लोकपाल की लड़ाई लड़ने वाले केजरीवाल ने भी आम आदमी के लिए
 'आम आदमी पार्टी' बना दी। वो भी अब पार्टी वाले हो ही गए तो फिर हम क्यूं पीछे रहें मियां,
आइए आप और हम भी इस दंगल में कूद लेते हैं। आख़िर हैं तो हम भी आम आदमी ही ना।
तो भइया मिलकर बोलो जय 'जनता', जय 'जनता परिवर्तन पार्टी'। जो इस स्वप्न के साथ स्थापित
होनी चाहिए जो वाकई में जनता और देश के हित में काम करे।
साथ ही साथ नाम के जैसा काम भी करे।


प्रदीप राघव..

Wednesday 12 December 2012

कविता- पापा खो गए...

पापा खो गए, उन अंधेरी रातों में,
भूली बिसरी यादों में,
समंदर की गहराई में,
आकाश की ऊंचाई में,

मैंने उन्हें दर-दर ढूंढा,
हर शहर हर मंज़र मैंने घूमा,
पर वो ना मिले किसी भी राह में,
ख़त्म हो गए उनसे सारे शिकवे-गिले,
अब हमें उनके प्यार का अहसास हुआ,
हम गए उनसे माफी मांगने,
पर वो जा चुके थे किसी और जहान में,
अब हमें उनकी याद आती है, दिन-रात सताती है


प्रदीप राघव...

Sunday 9 December 2012

कविता- कल सहर होते ही..

कल सहर होते ही पिताजी को बता देना,
ये ख़बर उनके कानों को पहुंचा देना,
मैं जा रहा हूं उन्हें छोड़कर ये फैसला उन्हें सुना देना,
जब-जब आए उन्हें मेरी याद, ये तस्वीर उन्हें दिखा देना,
हां ये ख़बर तू मां को भी सुना देना,
उसकी आंखों से बहते मोती की माला मेरी तस्वीर पे चढ़ा देना,
जब ना रुकें पिताजी के आंसू,
उनके ग़म को भुला देना,
इतनी मेहर तू मुझ पे कर देगा,
फिर मेरी याद में कोई ना रोएगा।


प्रदीप राघव...

पत्रकारिता पर सवालिया निशान..

                                       किस ओर जा रहा है पत्रकारिता का भविष्य...

मैं बदला ,तुम बदले, समाज बदला, और तो और आधुनिक युग में लोगों की मानसिकता तक बदली
तो भला पत्रकारिता क्यों ना बदलती।कुर्ता पायजामा पहने, दाढी बढ़ाए, माथे पर अजीब सी शिकन,
हाथ में झोला लिए एक साहब से मुलाकात हुई। मैं उन्हें देखकर ही भांप गया कि वो एक पत्रकार हैं
क्योंकि मैंने माखनलाल चतुर्वेदी जैसे बड़े-बड़े पत्रकारों के बारे में पढ़ा है और अच्छी तरह सुना भी।
आजकल के दौर में इस तरह के पत्रकारों को ढूंढना बेवकूफी से कम नहीं क्योंकि इस तरह के
पत्रकार आजकल होते ही नहीं। कौन कम्बख्त आजकल दाढी बढ़ाना, हाथ में झोला लेना और खादी
का कुर्ता-पायजामा पहनना पसंद करता है।
खैर, मैं उन भाईसाहब से पूछ बैठा, क्यूं मियां आप
पत्रकार है ना। गर्दन हिलाते हुए कहने लगे,
चलो कोई तो है जो हमें पहचानता है,
वरना आजकल तो लोग हमें भिक्षु
समझ लेते हैं। मैं हंसने लगा और कहने लगा ,
ऐसी बात नहीं है पत्रकार साहब। पत्रकारों की तो आजकल बहुत वेल्यू होती है। हां, टेलीविजन
और प्रिंट की पत्रकारिता में जरूर कुछ फर्क दिखाई पड़ता है। टेलीविजन में वो लोग चेहरे पर
क्रीम-पाउडर पोतकर स्टूडियो में बैठ समाचार पढ़ते हैं जबकि अखबार के पत्रकार गली-कूचों में
जाकर लोगों की मानसिकता का जायजा लेते हैं। दरअसल आजकल समाचार चैनल टीआरपी
की होड़ में कुछ अनाप-सनाप चीज़ें परोस जाते हैं। तो मेरी नजर में तो आप ही उन लोगों से श्रेष्ठ हैं।
वो जोर-जोर से हंसने लगे,कहने लगे बस मियां इतनी तारीफ काफी है। कुछ देर और गुफ्तगूं हुई
फिर हम लोग अपने-अपने गंतव्य को चल दिए। दरअसल वो एक बहुत पुराने अख़बार के पत्रकार
थे चूंकि टेलीविजन की पत्रकारिता से कहीं ज्यादा सहूलियत रखने वाली प्रिंट की पत्रकारिता है
क्योंकि यहां ब्रेकिंग न्यूज़ नामक समाचार चैनलों का दीमक नहीं होता लेकिन आधुनिक युग में हो
रहे बदलावों की झलक अब प्रिंट मीडिया में भी दिखाई पड़ती है हालिया कुछ घटनाओं से आप इस
बात का अंदाजा लगा सकते हैं।हालांकि गंदगी सभी जगह पर है टेलीविजन के पत्रकारों पर लगे
कलंकों से इस बात की पुष्टि होती है। वैसे भी आधुनिक दौर में अगर आपको अच्छे पत्रकारों की
झलक दिखाई देगी तो वो प्रिंट मीडिया में न कि इलेक्ट्रॉनिक में। आधुनिक युग में पत्रकारिता में
अनेकों बदलाव हुए हैं। रामनाथ और माखनलाल जी जैसे उस दौर में बहुत से अच्छे पत्रकार थे
जबकि आजकल ऐसे पत्रकार ढूंढे से भी नहीं मिलते जो कहीं पर किसी भी श्रेणी में आते हों।
हालांकि प्रिंट के भी कुछ पत्रकारों का नाम इनमें शामिल है इन बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं
ना कहीं पत्रकारिता का भविष्य अंधेरे की ओर जरूर जा रहा है।जिस तरह से हर जगह हुए बदलावों
ने आम आदमी की जिंदगी को आसान बना दिया है क्या उसी प्रकार पत्रकारिता में हो रहे नए-नए
बदलाव पत्रकारिता को उज्जवल भविष्य की ओर ले जा रहे हैं या फिर अंधेरे की ओर ढकेल रहे हैं।

प्रदीप राघव...