Sunday 9 December 2012

पत्रकारिता पर सवालिया निशान..

                                       किस ओर जा रहा है पत्रकारिता का भविष्य...

मैं बदला ,तुम बदले, समाज बदला, और तो और आधुनिक युग में लोगों की मानसिकता तक बदली
तो भला पत्रकारिता क्यों ना बदलती।कुर्ता पायजामा पहने, दाढी बढ़ाए, माथे पर अजीब सी शिकन,
हाथ में झोला लिए एक साहब से मुलाकात हुई। मैं उन्हें देखकर ही भांप गया कि वो एक पत्रकार हैं
क्योंकि मैंने माखनलाल चतुर्वेदी जैसे बड़े-बड़े पत्रकारों के बारे में पढ़ा है और अच्छी तरह सुना भी।
आजकल के दौर में इस तरह के पत्रकारों को ढूंढना बेवकूफी से कम नहीं क्योंकि इस तरह के
पत्रकार आजकल होते ही नहीं। कौन कम्बख्त आजकल दाढी बढ़ाना, हाथ में झोला लेना और खादी
का कुर्ता-पायजामा पहनना पसंद करता है।
खैर, मैं उन भाईसाहब से पूछ बैठा, क्यूं मियां आप
पत्रकार है ना। गर्दन हिलाते हुए कहने लगे,
चलो कोई तो है जो हमें पहचानता है,
वरना आजकल तो लोग हमें भिक्षु
समझ लेते हैं। मैं हंसने लगा और कहने लगा ,
ऐसी बात नहीं है पत्रकार साहब। पत्रकारों की तो आजकल बहुत वेल्यू होती है। हां, टेलीविजन
और प्रिंट की पत्रकारिता में जरूर कुछ फर्क दिखाई पड़ता है। टेलीविजन में वो लोग चेहरे पर
क्रीम-पाउडर पोतकर स्टूडियो में बैठ समाचार पढ़ते हैं जबकि अखबार के पत्रकार गली-कूचों में
जाकर लोगों की मानसिकता का जायजा लेते हैं। दरअसल आजकल समाचार चैनल टीआरपी
की होड़ में कुछ अनाप-सनाप चीज़ें परोस जाते हैं। तो मेरी नजर में तो आप ही उन लोगों से श्रेष्ठ हैं।
वो जोर-जोर से हंसने लगे,कहने लगे बस मियां इतनी तारीफ काफी है। कुछ देर और गुफ्तगूं हुई
फिर हम लोग अपने-अपने गंतव्य को चल दिए। दरअसल वो एक बहुत पुराने अख़बार के पत्रकार
थे चूंकि टेलीविजन की पत्रकारिता से कहीं ज्यादा सहूलियत रखने वाली प्रिंट की पत्रकारिता है
क्योंकि यहां ब्रेकिंग न्यूज़ नामक समाचार चैनलों का दीमक नहीं होता लेकिन आधुनिक युग में हो
रहे बदलावों की झलक अब प्रिंट मीडिया में भी दिखाई पड़ती है हालिया कुछ घटनाओं से आप इस
बात का अंदाजा लगा सकते हैं।हालांकि गंदगी सभी जगह पर है टेलीविजन के पत्रकारों पर लगे
कलंकों से इस बात की पुष्टि होती है। वैसे भी आधुनिक दौर में अगर आपको अच्छे पत्रकारों की
झलक दिखाई देगी तो वो प्रिंट मीडिया में न कि इलेक्ट्रॉनिक में। आधुनिक युग में पत्रकारिता में
अनेकों बदलाव हुए हैं। रामनाथ और माखनलाल जी जैसे उस दौर में बहुत से अच्छे पत्रकार थे
जबकि आजकल ऐसे पत्रकार ढूंढे से भी नहीं मिलते जो कहीं पर किसी भी श्रेणी में आते हों।
हालांकि प्रिंट के भी कुछ पत्रकारों का नाम इनमें शामिल है इन बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं
ना कहीं पत्रकारिता का भविष्य अंधेरे की ओर जरूर जा रहा है।जिस तरह से हर जगह हुए बदलावों
ने आम आदमी की जिंदगी को आसान बना दिया है क्या उसी प्रकार पत्रकारिता में हो रहे नए-नए
बदलाव पत्रकारिता को उज्जवल भविष्य की ओर ले जा रहे हैं या फिर अंधेरे की ओर ढकेल रहे हैं।

प्रदीप राघव...
       

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