आरटीआई से क्यों भागते हैं राजनैतिक दल...?
केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले के बाद जिसमें कहा गया था
कि राजनैतिक दलों को आरटाआई के दायरे में आना चाहिए।चूंकि वो सरकार से वित्तीय
सहायता प्राप्त करते हैं,के बाद राजनैतिक दलों ने खुलकर इसका विरोध किया।आरटीआई का
श्रेय लेने वाली और इसे लागू करने वाली सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी ने सबसे
पहले इसके दायरे में आने से इनकार किया।वहीं दूसरे दल भी इसे गलत ठहरा रहे हैं।उनका
कहना है कि हम चुनावों के समय चुनाव आयोग को ब्यौरा दे देते हैं तो फिर इसकी क्या
जरूरत है।जेडीयू के मुखिया ने तो यहां तक कहा था कि हम राशन की दुकान नहीं जो
खर्चे का ब्यौरा देते रहें।वैसे भाजपा ने प्रत्यक्ष तौर पर इसका विरोध नहीं किया।लेकिन
डरते सारे दल हैं।राजनैतिक दलों का मानना है कि वो चुनावों के समय सारे खर्च का
ब्यौरा चुनाव आयोग को मुहैया करा देते हैं।लेकिन सवाल यहां ये खड़ा होता है कि
देश-विदेश से मिलने वाले चंदे के बारे में आम आदमी को जानकारी क्यों ना हो।जब वो
वोट डालने का अधिकार रखते हैं तो उन्हें इसका भी अधिकार होना चाहिए कि जिस
राजनीतिक दल को वो वोट देने जा रहे हैं उसके बारे में उन्हें जानने का हक हो।वैसे
भी राजनैतिक दल सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं इसका मतलब ये है कि जनता को इस
चंदे या खर्च की सारी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है।
इस अधिकार से जनता को वंचित रखकर इसका लाभ उठाया जा रहा है।जैसे
कांग्रेस पार्टी का 24 अकबर रोड़ और भाजपा का 11 अशोक रोड़ वाले मुख्यालय का
किराया क्रमश 42,817 और 66,896 रूपए है।ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी
इसका लाभ उठा रहे हैं बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी, सपा,बसपा, और एनसीपी जैसे दल भी इस
जमात में शामिल हैं।जो सरकार से वित्तीय सहायता लेते हैं।इसका खुलासा आरटीआई
कार्यकर्ता सुभाष चंद अग्रवाल की शिकायत से हुआ जो उन्होंने 6 सितंबर 2011 को
सूचना आयोग में दर्ज कराई थी।,जिसमें कांग्रेस और बीजेपी को दिल्ली में सरकारी
ज़मीने रियायती दरों पर मुहैया कराने का ज़िक्र है।इसलिए ये दल जनता के प्रति
जवाबदेह हैं।वहीं इस संबंध में दूसरी शिकायत 14 मार्च 2011 को अनिल बैरवाल ने
सूचना आयोग के समक्ष दर्ज कराई थी जिसमें ये तर्क था कि कांग्रेस,एनसीपी और
कम्युनिस्ट पार्टी पर जनता का पैसा खर्च होता है इसलिए ये दल आरटीआई की धारा 2(H) के तहत आते हैं।इन दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए
मुख्य सूचना आयुक्त ने अपनी अध्यक्षता में 31 जुलाई 2012 को एक बेंच गठित करने का
निर्देश दिया था।जिसमें सूचना आयुक्त अन्नपूर्णा दीक्षित और सूचना आयुक्त एम एल
शर्मा शामिल थे।मुख्य सूचना आयुक्त सत्येंद्र मिश्र इसके अध्यक्ष थे।जिसके बाद
दोनों याचिकाकर्ताओं के द्वारा जुटाई गई जानकारी के आधार पर सूचना आयोग ने फैसला
लिया।जिसके तहत राजनीतिक दलों को छह हफ्तों के भीतर सूचना अधिकारी और अपीलीय
प्राधिकरण नियुक्त करने का आदेश दिया गया है।इस फैसले के बाद राजनैतिक दलों के
चंदे और खर्चे के बारे में आरटीआई से
सूचना प्राप्त की जा सकती है।भले ही इस कानून से भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम
ना लग पाए लेकिन भ्रष्टाचारी राजनेताओं के मन में डर जरूर पैदा होगा जिसका लाभ सरकारी
खजाने को तो होगा ही साथ ही राजनैतिक दलों की लीपापोती भी जनता के सामने आ जाएगी।
प्रदीप राघव...
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